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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 25 
इन्द्र की सभा में अपमानित होने के कारण गुरू ब्रहस्पति का चेहरा कलान्त हो गया था । उनके कदम एक एक मन के हो गये थे । हृदय इतना भारी हो गया था जैसे कि उस पर किसी ने मंदराचल पर्वत रख दिया हो । यह सत्य है कि मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करने हेतु उन्होंने कोई तपस्या नहीं की थी । वास्तव में वे चाहते भी नहीं थे कि ऐसी कोई विद्या उन्हें प्राप्त हो भी । मृत संजीवनी विद्या क्या प्रकृति के नियमों के विपरीत नहीं है ? जब प्रकृति ने तय कर दिया कि मृत्यु अवश्यंभावी है तो फिर मृत संजीवनी विद्या किसलिए ? यदि मृत संजीवनी विद्या है तो फिर प्रकृति के नियमों का क्या होगा ? जो कोई व्यष्टि के बजाय समष्टि के बारे में सोचेगा वह मृत संजीवनी विद्या की बात ही नहीं करेगा । किन्तु जो कोई स्वयं के स्वार्थ पूर्ति या व्यष्टि की बात करेगा तो वह मृत संजीवनी विद्या के लिए अनुष्ठान करेगा । अपनी प्रजाति को पुनर्जीवित करना परमार्थ कैसे हो सकता है ? ऋषि मुनियों , साधु पुरुषों एवं भक्त गणों को पुनर्जीवित करना तो समझ में आता है किन्तु दैत्यों को पुनर्जीवित करना समझ में नहीं आता । फिर शिव जी ने यह मृत संजीवनी विद्या बनाई ही क्यों ? ब्रहस्पति जी के मस्तिष्क में विचार श्रंखला चलने लगी । 

शुक्राचार्य जी ने मृत संजीवनी विद्या प्राप्त करके सही किया या नहीं, यह ज्ञानीजनों के शास्त्रार्थ का विषय हो सकता है किन्तु इसने ब्रहस्पति जी को कितनी मुश्किल में डाल दिया इसका अंदाजा कौन लगा सकता है ? हर कोई ब्रहस्पति को उलाहना दे जाता है कि मृत संजीवनी तो शुक्राचार्य ले गये, आप क्या ले रहे हो ? ब्रहस्पति भला उन्हें क्या कहते ? एक दीर्घ निश्वास छोड़कर शांत हो जाते हैं । देवराज ने भी अपना पूरा क्रोध उन पर निकाला ही था और वे खड़े खड़े उस अपमान को पीते ही रहे थे । 

ब्रहस्पति को इस समस्या का कोई समाधान सूझ नहीं रहा था । अब तो दो समाधान ही संभव हैं । एक तो मृत संजीवनी जैसी कोई और विद्या हो तो उसे प्राप्त किया जाये । अथवा अमृत प्राप्ति का कोई यत्न किये जाये । अमृत प्राप्ति कोई आसान कार्य है क्या ? स्वयं नारायण इस हेतु प्रयासरत हैं । फिर मैं क्या कर सकता हूं ? ब्रहस्पति के मस्तिष्क ने कार्य करना बंद कर दिया था । अपमान और दर्द में डूबे व्यक्ति का मस्तिष्क कैसे काम करेगा ? 

वे शून्य में डूबे हुए अपने गृह की ओर मंथर गति से चल रहे थे । अचानक पथ में उनको नारद जी मिल गये । 
"नारायण ! नारायण ! कहां चले गुरूदेव " ? नारद जी ने ब्रहस्पति जी को छेड़ते हुए कहा । 
नारद को सामने देखकर ब्रहस्पति अवाक् रह गये । नारद जी की ख्याति विश्व विख्यात है । इधर का माल उधर और उधर का माल इधर करने में उन्हें महारत प्राप्त है । इधर उधर की लगाई बुझाई किये बिना जैसे उनके पेट का पानी पचता ही नहीं था । ब्रहस्पति अब नारद जी को अनदेखा भी नहीं कर सकते थे । वे उनके ठीक सामने आ गए थे । अब उनसे पीछा छुड़ाना लगभग असंभव सा था । ब्रहस्पति कन्नी काटकर निकलने लगे । 
"हमसे इतनी बेरुखी क्यों है गुरूदेव ? हमने ऐसा क्या कर दिया जो हमसे कन्नी काटकर निकल रहे हैं" हंसते हुए नारद जी बोले 
"प्रणाम देवर्षि" । ब्रहस्पति को कहना ही पड़ा । नारद जैसे लोगों से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल कार्य है । ब्रहस्पति ने नारद को टालने के लिए पूछ लिया "इधर कहां जा रहे हैं देवर्षि" ? 
"आपके पास ही आ रहा था । देवराज को आपके साथ इस प्रकार व्यवहार नहीं करना चाहिए था । आखिर आप देव गुरू हैं । आपका भी तो मान सम्मान है । उन्होंने भरी सभा में आपको अपमानित करके ठीक नहीं किया । अब आप क्या करेंगे" ? 
"अभी तो कुछ सूझ ही नहीं रहा है देवर्षि । आप ही कुछ उपाय सुझाइए न" ? ब्रहस्पति ने नारद की ओर ही मोड़ दिया आक्रमण का मुंह । 
"उपाय तो तलाशना पड़ेगा गुरूदेव । आप से अधिक ज्ञानी और कौन है इस स्वर्ग लोक में ? यदि आप ही हाथ खड़े कर देंगे तो कैसे काम चलेगा" ? नारद जी बोले 
"मेरी राय में तो हमें समुद्र मंथन करके अमृत कलश प्राप्त कर लेना चाहिए । यही एकमात्र हल सूझ रहा है मुझे तो" 
"वो तो ठीक है । भगवान विष्णु भी इस पर विचार कर रहे हैं । पर तब तक कुछ और उपाय सोचना पड़ेगा । ऐसा क्यों नहीं कर लेते गुरूदेव कि किसी को शुक्राचार्य के पास भेजकर उनसे मृत संजीवनी विद्या सीखकर आ जाए" 
"क्या यह संभव है देवर्षि ? शुक्राचार्य देवों को क्यों सिखाएँगे मृत संजीवनी विद्या" ? ब्रहस्पति के स्वर में घोर आश्चर्य था । 
"यदि कोई देव या देव पुत्र शुक्राचार्य को प्रसन्न कर लें तो यह कार्य संभव हो सकता है । है कोई योग्य देव ? 
"ढूंढते हैं देवर्षि ऐसा कोई योग्य व्यक्ति । अच्छा तो अब चलने की अनुमति दीजिए" । ब्रहस्पति ने पीछा छुड़ाते हुए कहा 
"ठीक है । कोई संकट आये तो मुझे याद करना" । नारद जी भी चले गए 

घर पहुंचने पर ब्रहस्पति के चरण उनकी सबसे छोटी पत्नी ममता ने धुलवाए और हाथ पोंछने को एक वस्त्र दे दिया । 
"आज आप कुछ परेशान हैं नाथ" ममता ने उन्हें देखकर कहा । 
"नहीं , कोई परेशानी नहीं है । धूप और तपिश के कारण चेहरा जरा क्लान्त लग रहा होगा प्रिये । और कोई बात नहीं है 
"भोजन तैयार है , खा लीजिए" 
"अभी भूख नहीं है, बाद में खा लूंगा" ब्रहस्पति ने टालने के लिए कह दिया । बात को घुमाते हुए बोले "आज घर में शांति कैसे है ? शैतानों की टोली कहां है आज" ? घर में इधर उधर निगाहें दौड़ाते हुए ब्रहस्पति ने कहा 
"पुत्रगण तो बाहर कन्दुक क्रीड़ा कर रहे हैं और पुत्रियां अपनी मां का हाथ बंटा रही हैं" । वार्तालाप में सम्मिलित होते हुए मंझली पत्नी तारा बोली 
"पुत्रियां तो होती ही ऐसी हैं , मोगरे के फूल जैसी । जहां जाती हैं सुगंध बिखेर देती हैं । पुत्र तो आंधी तूफान की तरह होते हैं । तबाही के निशान छोड़कर जाते हैं" । ब्रहस्पति कह ही रहे थे कि इतने में पूरी शैतानी टोली आ धमकी । तारा के 7 और ममता के दो पुत्र थे । आठों पुत्र घर में आ गये थे लेकिन कच नहीं आया था 
"कच कहां है" ? ब्रहस्पति बोले 
"हमें नहीं पता" । समवेत स्वर में वे सब बोले 
"ऐसे कैसे भ्राता हो तुम लोग ? कच तुम सबमें सबसे छोटा है इसलिए तुम सबका उत्तरदायित्व है कि उसे साथ लेकर आते । अकेला छोड़कर आते समय तुम्हें लाज नहीं आई क्या" ? ब्रहस्पति के चेहरे पर क्रोध था 

ब्रहस्पति की तेज आवाजें सुनकर उनकी पहली पत्नी शुभा भी आ गई  । उनके साथ साथ उनकी सातों पुत्रियां भी आ गई । सब एक दूसरे को प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगे कि क्या हो गया । 
"किसी ने कच को देखा है क्या ? आज सुबह से ही कच दिखाई नहीं दे रहा है । जाओ, पता लगाओ" 
ब्रहस्पति ने ममता पुत्र भारद्वाज को कच को ढूंढकर लाने की आज्ञा दे दी । भारद्वाज जाने वाले ही थे कि इतने में कच आ गया । उसके हाथ में कंदुक भी थी । कच को देखकर सभी भ्रातागण भौंचक्के रह गए 
"कहां से आ रहे हो वत्स" ब्रहस्पति ने प्रश्न छोड़ दिया 
"हम सभी भ्रातागण कन्दुक क्रीड़ा कर रहे थे तात् कि उसी समय ऋषि दुर्वासा आ गये" । कच विस्तार से बताने लगा 

कच के मुंह से ऋषि दुर्वासा का नाम सुनकर ब्रहस्पति सहम गए । दुर्वासा ऋषि की पहचान ही ऐसी थी कि सभी डरते थे उनसे । कब किस बात पर वे क्रोधित हो जाऐं, उन्हें भी नहीं पता होता था । पूरा वृत्तान्त सुनने के लिए वे बोले "ऋषि क्रोधित तो नहीं हुए ना पुत्र" ? 
"नहीं तात ! वे शांत ही रहे और उन्होंने मुझे आशीर्वाद भी दिया" कच उत्साहित होकर बोला 
"पूरा प्रकरण सुनाओ पुत्र" 
"तात् । हम सभी भ्राता कन्दुक क्रीड़ा कर रहे थे कि इतने में ऋषि दुर्वासा आ गये । हमारी कन्दुक उनके सिर से टकरा कर गिर पड़ी । सारे भ्रातागण भय के मारे भाग गये और मैं अकेला रह गया । मैं ऋषि दुर्वासा के चरणों में गिर पड़ा और अनजाने में हुए अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगा । ऋषि प्रसन्न हो गए और उन्होंने न केवल हमें क्षमा किया अपितु "विजयी भव" का आशीर्वाद भी दे दिया" । कच का उत्साह देखते ही बनता था । 

कच की सत्यवादिता, हिम्मत और विनयशीलता ने ब्रहष्पति को भी बहुत प्रभावित किया । फिर उन्होंने अपने शेष पुत्रों को डांटकर कहा "तुम लोगों ने असत्य क्यों कहा कि हमें कच के बारे में नहीं पता ? सबसे छोटे बालक को छोड़कर आना क्या तुम्हें शोभा देता है ? क्या बड़े भ्राता का यही कर्तव्य सिखाया है तुम्हें" ? ब्रहस्पति की आंखें अंगारे बरसाने लगी । सभी पुत्र उनका रौद्र रूप देखकर उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे । 

क्रमश : 

श्री हरि 
19.5.23 


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3 Comments

वानी

16-Jun-2023 07:20 PM

Nice

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Varsha_Upadhyay

24-May-2023 07:17 AM

बहुत खूब

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shahil khan

20-May-2023 10:26 AM

Nice

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